नौकरशाही को सुधारने की ठोस पहल: समस्याएं हमारे देश की, नौकरशाही भी हमारी, लेकिन उन्हें पढ़ाया जाता है दूसरे देशों के अनुभवों के बारे में
नौकरशाही को सुधारने की ठोस पहल: समस्याएं हमारे देश की, नौकरशाही भी हमारी, लेकिन उन्हें पढ़ाया जाता है दूसरे देशों के अनुभवों के बारे में
हमारी नौकरशाही लालफीताशाही, अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार के लिए बदनाम है। 1970 के दशक में जेके गॉलब्रेथ की टिप्पणियों से लेकर तमाम हालिया सर्वेक्षणों में भारतीय नौकरशाही के संबंध में यही सच उजागर होता रहा है। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसे इस समस्या से उबारने के लिए मिशन कर्मयोगी शुरू करने का फैसला किया है।
इसका मकसद पारदर्शिता, प्रशिक्षण और प्रौद्योगिकी के जरिये लोकसेवकों की कार्यक्षमता में सुधार लाना और उन्हें अपने नाम के अनुकूल सच्चे जनसेवक बनाना है। सवाल है कि यह होगा कैसे? पिछले दिनों राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी के जरिये राष्ट्रीय स्तर पर भर्ती का खाका सामने आया है। वैसे तो संघ लोक सेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग और रेलवे भर्ती बोर्ड आदि की परीक्षाओं में काफी सावधानियां बरती जाती हैं, लेकिन अफसोस की बात यह है कि कर्मचारियों-अधिकारियों की भर्ती के बाद मामला उतना ही उदासीन बनता जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि ईमानदारी के जज्बे से भरे युवा सेवा में आने के बाद अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार के दलदल में गिरते चले जाते हैं। पूरा सरकारी तंत्र ही उन्हें यह यकीन दिला देता है कि वे एक तरह से कल्पवृक्ष की छांव में बैठने के लिए आए हैं। चूंकि ब्रिटिश काल से ही यह हो रहा है, इसलिए आजादी के बाद सरकारी नौकरी में आने के लिए जैसी प्रतिस्पर्धा होती है, वैसी कहीं और नहीं नजर आती। दरअसल इसकी वजह यह है कि सरकारी नौकरी सेवा के बजाय सुविधाओं का पर्याय बनती गई है। इसमें आकर्षक पेंशन, मेडिकल एवं आवास सुविधाओं के साथ विदेश यात्र की भी सुविधा मिलती है। इन प्रवृत्तियों पर लगाम लगाने और लोकसेवकों को सच्चा जनसेवक बनने की बातें दशकों से हो रही हैं, लेकिन समग्रता के साथ ठोस पहल कभी नहीं हो पाई।
इसका मकसद पारदर्शिता, प्रशिक्षण और प्रौद्योगिकी के जरिये लोकसेवकों की कार्यक्षमता में सुधार लाना और उन्हें अपने नाम के अनुकूल सच्चे जनसेवक बनाना है। सवाल है कि यह होगा कैसे? पिछले दिनों राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी के जरिये राष्ट्रीय स्तर पर भर्ती का खाका सामने आया है। वैसे तो संघ लोक सेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग और रेलवे भर्ती बोर्ड आदि की परीक्षाओं में काफी सावधानियां बरती जाती हैं, लेकिन अफसोस की बात यह है कि कर्मचारियों-अधिकारियों की भर्ती के बाद मामला उतना ही उदासीन बनता जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि ईमानदारी के जज्बे से भरे युवा सेवा में आने के बाद अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार के दलदल में गिरते चले जाते हैं। पूरा सरकारी तंत्र ही उन्हें यह यकीन दिला देता है कि वे एक तरह से कल्पवृक्ष की छांव में बैठने के लिए आए हैं। चूंकि ब्रिटिश काल से ही यह हो रहा है, इसलिए आजादी के बाद सरकारी नौकरी में आने के लिए जैसी प्रतिस्पर्धा होती है, वैसी कहीं और नहीं नजर आती। दरअसल इसकी वजह यह है कि सरकारी नौकरी सेवा के बजाय सुविधाओं का पर्याय बनती गई है। इसमें आकर्षक पेंशन, मेडिकल एवं आवास सुविधाओं के साथ विदेश यात्र की भी सुविधा मिलती है। इन प्रवृत्तियों पर लगाम लगाने और लोकसेवकों को सच्चा जनसेवक बनने की बातें दशकों से हो रही हैं, लेकिन समग्रता के साथ ठोस पहल कभी नहीं हो पाई।
दर्जनों समितियों और प्रशासनिक आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने समय-समय पर नौकरशाही में फैली अकर्मण्यता और निष्क्रियता को उजागर किया है, लेकिन उसकी खामियां बरकरार रहीं। अपनी मृत्यु से पहले एक अमेरिकी पत्रकार को दिए साक्षात्कार में नेहरू ने भी स्वीकार किया था कि वह भारतीय नौकरशाही को नहीं सुधार पाए। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में कहा था कि अब उनकी प्राथमिकता नौकरशाही में सुधार लाने की है। मिशन कर्मयोगी सही दिशा में एक कदम है, बशर्ते वह जमीन पर उतरे। हालांकि इसे हाल ही में उठाए गए कुछ अन्य महत्वपूर्ण कदमों जैसे-कुछ ऊंचे पदों को छोड़कर भर्ती में साक्षात्कार की समाप्ति, राजपत्रित अधिकारी से सत्यापन के बजाय स्वयं सत्यापन, समय पालन के लिए बायोमीटिक्स अटेंडेंस की अनिवार्यता और भारतीय भाषाओं के लिए पहल की कड़ी में देखने की जरूरत है।
आखिर भर्ती में इतनी कठिन प्रतियोगिता से गुजरने के बाद सरकारी कर्मचारी धीरे-धीरे इतने सुस्त, अकर्मण्य और जनता की समस्याओं के प्रति उदासीन क्यों होते जाते हैं? अफसरों के प्रशिक्षण की सर्वोच्च संस्था लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी, मसूरी हो या सिकंदराबाद, नागपुर, बड़ौदा की अकादमी या फिर दूसरे प्रशिक्षण संस्थान, ये सब अपने स्वरूप, पाठ्यक्रम, प्रशिक्षण और उद्देश्य में धीरे-धीरे जनता और शासन के प्रयोजनों से निरंतर दूर कैसे होते गए? गरम जलवायु वाले भारत जैसे देश में अंग्रेजों की ओर से शुरू परंपराएं यथा-बंद गले का कोट और टाई की अनिवार्यता क्यों? लोकसेवकों के लिए अंग्रेजी प्रशिक्षण और इतिहास आदि के वही रटे-रटाए पाठ्यक्रम क्यों? क्या शुरुआती 20 हफ्ते के फाउंडेशन प्रोग्राम में उन्हें भारत की 20 चुनिंदा समस्याओं जैसे-भाषा, जाति, पानी, सफाई, स्वास्थ्य, सीवेज प्रणाली, सूखा, साक्षरता, महिलाओं से जुड़े मुद्दों, कानून व्यवस्था, आíथक असमानता और भौगोलिक चुनौतियां आदि का शिक्षण नहीं दिया जा सकता? इन विषयों की केस स्टडी भी इसमें शामिल होनी चाहिए और दिग्गज विचारक, पत्रकार और राजनेताओं को उनसे सीधे रूबरू कराया जाना चाहिए। लोकसेवकों को संवेदनशील और चुस्त बनाने के साथ ही उनमें देश के प्रति समझ भी पैदा की जानी चाहिए है, न कि पहले ही दिन से अमेरिकी और यूरोपीय संस्थानों के सब्जबाग दिखाए जाने चाहिए। वैश्विक संस्थानों के बारे में जानना और उनकी समस्याओं को समझना भी जरूरी है, लेकिन उससे पहले अपने देश, प्रदेश, समाज, संस्कृति और उनकी समस्याओं के बारे में जानना आवश्यक है।
यह अफसोस की बात है कि प्रशिक्षण के दौरान हमारे लोकसेवक जिन केस स्टडी का अध्ययन करते हैं, उनमें से 90 प्रतिशत से अधिक आयातित होती हैं। यानी समस्याएं हमारे देश की, नौकरशाही हमारी और उन्हें पढ़ाया जाता है दूसरे देशों के अनुभवों के बारे में। सवाल है कि हम प्रामाणिक और विश्वसनीय केस स्टडी भी सामने क्यों नहीं ला पा रहे हैं? हमारे प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थान क्या कर रहे हैं? अभी कोरोना महामारी को देखते हुए तुरंत ही यह कदम उठाने की जरूरत है कि प्रशिक्षण संस्थानों में जो अधिकारी हैं, उन्हें कार्यस्थलों पर भेजा जाए। कार्यस्थलों के अनुभव जल्दी और बेहतर सीखने का मौका देते हैं। तैरना तालाब में उतरकर सीखा जाता है, किताबों से नहीं। कुछ तकनीकी प्रशिक्षण को छोड़कर लोकसेवकों के प्रशिक्षण की अवधि भी कम की जानी चाहिए। दुनिया भर के तमाम निजी संस्थानों में कर्मचारी की पदोन्नति परीक्षा और साक्षात्कार के जरिये उसकी कार्यक्षमता परखने के बाद होती है, जबकि भारत सरकार में यह कार्य एक गोपनीय रिपोर्ट के आधार पर हो जाता है, जो प्रक्रिया विश्वसनीयता खो चुकी है। निश्चित रूप से नौकरशाही के अंदर से मिशन कर्मयोगी का विरोध होगा और विपक्ष भी अपने मिजाज के अनुकूल आवाज उठाएगा, लेकिन यदि पारदर्शिता और आत्मनिर्भर भारत के नारे के तहत अपने ही संस्थानों के बूते इस मिशन पर काम किया जाए तो नौकरशाही को सुधारा जा सकता है।
(लेखक रेल मंत्रलय में संयुक्त सचिव रहे हैं)
Post a Comment