निवेश बढ़ा तो जरूर संवरेंगे सरकारी स्कूल, अच्छे पठन-पाठन के लिए शिक्षा पर सरकारी खर्च बढ़ाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं
साल 1973 में मेरा दाखिला भोपाल के केंद्रीय विद्यालय की पहली कक्षा में हुआ था। दूसरे ही दिन, मेरी क्लास टीचर ने मुझे कक्षा में आगे बुलाया और अपनी हथेली सामने करने को कहा, ताकि स्केल से वह मुझे मार सकें। वे यादें आज भी मेरे जेहन में बनी हुई हैं। उस पिटाई के बाद मैंने स्कूल जाने से मना कर दिया था।
इसीलिए अगले दिन मेरे पिता मुझे स्कूल छोड़ने के लिए आए। कार में वह धैयपूर्वक मेरे साथ बैठे रहे और यह इंतजार करते रहे कि मैं स्कूल के अंदर जाने के लिए खुद आगे बढ़ूंगा। मगर मैं अपनी सीट पर बैठा रहा। जब काफी वक्त बीत गया और पापा को लगा कि मेरा फैसला अटल है, तो वह मुझे वापस घर ले आए। अगले दिन भी ठीक यही कहानी दोहराई गई।
इस मूक विद्रोह के तीसरे दिन स्कूल की उप-प्रधानाध्यापक श्रीमती देशपांडे हाथ में लाल गुलाब लिए बाहर निकलीं। उन्होंने मुझसे क्या कहा, यह तो आज याद नहीं है, लेकिन इतना जरूर स्मरण है कि मैं उनके साथ स्कूल के अंदर चला गया, एक हाथ में गुलाब और दूसरे हाथ से उनकी उंगलियां पकड़कर। वह मुझे पहली कक्षा के दूसरे सेक्शन में ले गईं। उस वक्त तारा मैडम कक्षा ले रही थीं। उन्होंने भी उसी स्नेह से मुझे कक्षा में बिठाया। उनका वह दुलार मुझे अगले तीन साल तक मिलता रहा, क्योंकि वह तब तक मेरी क्लास टीचर रहीं।
कभी-कभी सोचता हूं कि अगर देशपांडे या तारा मैडम जैसी शिक्षिकाएं न होतीं, तो मैं आज कहां होता? मेरी स्कूली शिक्षा कैसी रही होती? निश्चय ही, देर-सबेर मैं स्कूल जाता ही, पर संभव है कि उसी सेक्शन में जाता, जिसकी क्लास टीचर ने मुझे मारा था। बाद में इसका क्या मतलब रहता, यह कहना आज मुश्किल है, अब तो मैं बस कयास लगा सकता हूं।
बहरहाल, दो हफ्ते पहले बारिश से भीगी एक शाम में मैं स्कूल के अपने सात दोस्तों से मिला। उनमें से पांच 1973 से मेरे साथ हैं। उस घटना को आज करीब 50 साल हो गए हैं, लेकिन उस शाम तक मुझे नहीं पता था कि हम सात दोस्तों में मेरे अलावा दो अन्य भी ऐसे हैं, जिनके स्कूली जीवन को श्रीमती देशपांडे ने इसी तरह संवारा था।
भारत में केंद्रीय विद्यालय 1963 में शुरू किए गए थे, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सशस्त्र बलों, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों, भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस अधिकारी सहित केंद्र सरकार के अन्य विभागों में काम करने वाले कर्मियों के बच्चों को माता-पिता के स्थानांतरण की सूरत में भी अच्छी शिक्षा मिले।
आज देश भर में 1,252 केंद्रीय विद्यालय हैं, जिनमें 14 लाख से भी अधिक बच्चे पढ़ रहे हैं। तड़क-भड़क वाले निजी स्कूलों के बीच भी इन विद्यालयों को अच्छा शिक्षण संस्थान माना जाता है।
मैंने भोपाल के केंद्रीय विद्यालय में नौ साल बिताए। चौथी, पांचवीं और नौवीं कक्षा की पढ़ाई मैंने दूसरे शहर में की। वे दिन मुझे आज भी उसी तरह याद हैं, जिस तरह मेरे दोस्तों को।
हमारी नजर में श्रीमती देशपांडे और तारा मैडम संभवत: सभी शिक्षकों में सबसे ज्यादा उदार थीं, मगर स्कूल में अच्छे शिक्षकों की कमी नहीं थी। मुझे महज दो या तीन ऐसे शिक्षक याद हैं, जो काफी सख्त रहे। अगर आज की तरह शारीरिक दंड को लेकर उस वक्त भी नियम-कानून बन गए होते, तो उन दो-तीन शिक्षकों में से एक निश्चय ही सलाखों के पीछे होते। फिर भी ज्यादातर शिक्षक संवेदनशील, काबिल और मन लगाने वाले थे।
स्कूल की मेरी दूसरी चिरस्थायी स्मृति यह है कि वह हमेशा मेरे लिए अति व्यस्त स्थान रहा। वहां कक्षा ही नहीं, कई तरह की अन्य गतिविधियां भी होती रहती थीं। थिएटर, वाद-विवाद, पिकनिक और न जाने क्या-क्या। स्कूल ने सीखने के मानो तमाम आयामों और संभावनाओं का ध्यान रखा था। यह उस तरह का जीवंत संस्थान था, जिसकी हम कल्पना करते हैं। निस्संदेह, यह संस्कृति राजगुरु सर की वजह से विकसित हो पाई थी, जो एक दशक से भी अधिक समय तक स्कूल के प्रधानाध्यापक रहे।
हमने तब ऐसा नहीं सोचा था, लेकिन आज यही लगता है कि स्कूली माहौल की वजह से ही हमारे दिल-ओ-दिमाग में विविधता का संसार बसा, जो हमारे लिए शायद सबसे बहुमूल्य अनुभव है। मेरी कक्षा में आईएएस और आईपीएस अधिकारियों के बच्चे भी थे, मुख्यमंत्री के भी और चतुर्थ श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों के भी। हम तब शायद ही किसी तरह का भेदभाव किया करते। कक्षा में इस तरह की विविधता आज अकल्पनीय है।
मुझे संदेह है कि अगर इलाका पिछड़ा न हो, तो कोई उच्च अधिकारी शायद ही अपने बच्चों को केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाता होगा। वे निजी स्कूलों को कहीं ज्यादा तवज्जो देते हैं। यकीनन पारिवारिक पृष्ठभूमि से सींची गई सामाजिक पूंजी ने हम सबके जीवन पथ को संवारने में बड़ी भूमिका निभाई है, पर जिस स्कूल ने हम सभी को एक समान शिक्षा दी, उसने हमारे लिए संभावनाओं के तमाम द्वार खोले हैं। इन सबसे बढ़कर उसने हमें बेहतर इंसान बनाया है, जो किसी दूसरी जगह शायद ही बन पाते।
केंद्रीय विद्यालय उदाहरण हैं कि कैसे अच्छे सरकारी स्कूल चलाए जा सकते हैं। वे न केवल अच्छे शिक्षण संस्थान हैं, बल्कि सबसे अधिक जीवंत भी हैं। यहां यह भी समझना चाहिए कि केंद्रीय विद्यालयों में हर छात्र पर होने वाला औसत खर्च सामान्य सरकारी स्कूल से दो-तीन गुना अधिक है, जो एक बड़ी वजह है कि आखिर क्यों इन्होंने अपनी गुणवत्ता बनाए रखी है। फिर, इनका पूंजीगत व्यय भी अधिक है, क्योंकि ये अच्छी सुविधाएं देते हैं और ये अमूमन राज्य स्कूल से आठ से दस गुना बड़े भी होते हैं। इन्हीं सबके मद्देनजर यह कह सकते हैं कि यहां हर छात्र पर होने वाला खर्च चार से पांच गुना है। स्पष्ट है, अच्छे पठन-पाठन के लिए शिक्षा पर सरकारी खर्च बढ़ाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
आज भी भारत के तमाम सरकारी स्कूलों में देशपांडे और तारा मैडम जैसी शिक्षिकाएं अथवा शिक्षक मिल जाएंगे, क्योंकि अपने यहां शिक्षकों का चरित्र ही ऐसा है कि वे संवेदना को प्रोत्साहित करते हैं। लिहाजा, केंद्रीय विद्यालयों की तरह ही हम यदि अन्य सरकारी स्कूलों में निवेश कर सकें, तो निस्संदेह उनकी तस्वीर भी बदल जाएगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
✍️ लेखक
अनुराग बेहर,
सीईओ,
अजीम प्रेमजी फाउंडेशन
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