नई जनगणना से निर्णायक दस्तावेज तैयार कीजिए: लेख
किसी भी देश के विकास के लिए जनगणना बहुत आवश्यक है। हमारे देश में पहली जनगणना सन् 1872 में प्रारंभ हुई थी और वर्ष 1881 में पहली पूर्ण जनगणना की गई। चूंकि किसी भी वर्ग या समुदाय के लिए नीति-निर्धारण में उसकी वास्तविक जनसंख्या की जानकारी बहुत जरूरी होती है, इसीलिए ब्रिटिश सरकार ने भारत में जनगणना प्रारंभ की थी, जो आजादी के बाद भी जारी रही। आजादी के बाद पहली जनगणना सन् 1951 में की गई और तब से प्रत्येक दस वर्ष के अंतराल पर 2011 तक देश में कुल सात बार जनगणना हुई है। मगर इस क्रम में साल 2021 में होने वाली जनगणना अभी तक नहीं हो सकी है, क्योंकि कोविड महामारी के कारण इसे तब स्थगित किया गया था। केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ पर आई कोविंद समिति की रिपोर्ट को हरी झंडी दिखाए जाने पर अब जनगणना होने की उम्मीद बढ़ चली है, क्योंकि विधानसभाओं व लोकसभा के परिसीमन के लिए यह अत्यंत आवश्यक है।
इस समय जातिगत जनगणना के लिए देश में जोर-शोर से आवाज उठाई जा रही है। ब्रिटिश राज में सन् 1931 में जातिगत जनगणना कराई गई थी, जिसे ‘फूट डालो और राज करो’ की कार्रवाई माना गया था। मगर जातिगत जनगणना अब एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन चुका है, क्योंकि इसी के आधार पर निशुल्क योजनाओं द्वारा वोटों को प्रभावित कर सरकार में आने के रास्ते साफ होते हैं।
बहरहाल, आजादी के बाद हुई सात जनगणनाओं बावजूद हमारे पास आज भी रियल टाइम आंकड़ों का अभाव है और सरकार का हरेक विभाग अपनी योजनाओं के लिए अलग-अलग सर्वे कराता है, पहचान-पत्र जारी करता है, आंकडे़ जुटाता है और उन पर हजारों करोड़ रुपये खर्च करता है। उदाहरण के लिए, यदि सरकार विधवा महिलाओं के लिए कोई योजना लागू करना चाहे, तो उसे किसी भी आंकडे़ से यह जानकारी नहीं मिल सकती कि हमारे देश में वर्तमान में कितनी विधवा महिलाएं हैं? जब वास्तविक आंकड़े ही नहीं होंगे, तो प्रभावी नीतियों का निर्माण कैसे संभव है? इस बार के बजट में जनगणना-कार्य के लिए लगभग 1,310 करोड़ रुपये की धन-राशि निर्धारित की गई है। साल 2009 से 2024 के मध्य आधार कार्ड बनाने पर 4,467 करोड़ रुपये की धन-राशि खर्च हुई है। उसी प्रकार, बीपीएल सर्वे, एनएचएफएस सर्वे, बाल गणना, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान योजना, खाद्य योजना, किसान सम्मान निधि, मतदाता पहचान-पत्र, राशन कार्ड, परिवार रजिस्टर, परिवार पहचान-पत्र, जाति प्रमाण-पत्र, वारिसान प्रमाण-पत्र जैसी योजनाओं व सुविधाओं के सर्वे और लाभार्थियों की पहचान के लिए केंद्र और राज्य सरकारें हजारों करोड़ रुपये खर्च करती हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति का एक केंद्रीय डेटाबेस तैयार किया गया होता, जिसके आधार पर सभी प्रकार की सरकारी सुविधाओं का लाभ मिल पाता, तो प्रत्येक वर्ष सर्वे व लाभार्थी चिह्नीकरण के नाम पर खर्च होने वाले हजारों करोड़ रुपये की बचत होती।
इस बार की जनगणना कराते समय यदि केंद्र सरकार सभी नागरिकों के आधार नंबर से पुष्टि कराती है और इसको पैन, मतदाता पहचान-पत्र, परिवार पहचान-पत्र, जाति प्रमाण-पत्र, जन्म-मृत्यु प्रमाण-पत्र, विवाह-तलाक पंजीकरण आदि से भी जोड़ दिया जाता है, तो हमें भविष्य में किसी भी प्रकार के सर्वे या लाभार्थी चिह्नीकरण के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च करने की जरूरत नहीं पडे़गी। इस तरह, हमारे पास पीढ़ियों तक के हर प्रकार के रियल टाइम आंकड़े उपलब्ध रहेंगे और फर्जी प्रमाण-पत्र बनाकर सुविधाओं के लाभ लेने पर भी रोक लगेगी।
भारत सरकार को इस जनगणना के माध्यम से एक ऐसा नेशनल डेटाबेस तैयार कराना चाहिए, जिसमें सीआरएस पोर्टल के जरिये जन्म एवं मृत्यु प्रमाण-पत्र जारी होने पर संबंधित परिवार की संख्या स्वत ही घट या बढ़ सके। इस जनगणना के माध्यम से यदि सभी के विवाह एवं तलाक का भी अनिवार्य रूप से पंजीकरण करा लिया जाता है, तो प्रत्येक परिवार से संबंधित हर प्रकार के आंकड़े हमारे पास उपलब्ध रहेंगे। भविष्य में देश के करदाताओं के धन के दुरुपयोग को रोकने और देश की प्रगति को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) मनु गौड़
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